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Tuesday, June 18, 2024

रेल मंत्री रहते हुए लालू जी औऱ अश्विनी वैष्णव ज़ी में क्या फर्क़ है?

आइये आज इस बात पर प्रकाश डालने का प्रयास करें की दोनों के कार्यकलाप में क्या अन्तर है? मैं इस बात पर ज़रूर ध्यान नहीं खींचना चाहूंगा कि दोनों में कौन स्मार्ट दिखते हैं? कि दोनों में कौन आम चूस के खाता है या नहीं, दोनों में किसका हेर स्टाइल अच्छा है या फ़िर दोनों में कौन कितना अच्छा makeup करके सेंट मार कर रहता है? मैं इस बात पर ज़रूर नजर डालने का कोशिश करूंगा कि दोनों में rail मंत्री जैसे पोस्ट के लिए कौन फ़िट था

Friday, June 14, 2024

झूठ-सच की ब्रांडिंग करके नरेटिव कैसे खड़ा किया जाता है?

महीन जाल बुनकर, झूठ-सच की ब्रांडिंग करके नरेटिव कैसे खड़ा किया जाता है, विडीयो उसका शानदार उदाहरण है। 
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पहले वक्ता अपनी स्टैंडिंग बताता है

वह राहुल गांधी के साथ "चाय पीता" है, और उन्हें राहुल को लेक्चर करने के लिए अक्सर बुलाया जाता है। 

यानी वह छोटा मोटा आदमी नही। तटस्थ, स्ट्रेट फार्वर्ड भी है। निजत्व का सम्मान भी करता है, अहा.. !!! 

फिर एक स्टेटमेंट- "राहुल विकास विरोधी है, "शायद" मार्क्सवाद का कीड़ा उनके दिमाग मे बैठा है" इस बीच कुछ शब्द जैसे सेंट स्टीफेंस, जेएनयू, वामपंथ टपका दिये। 
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अब आगे वे अपने स्टेटमेंट को साबित करेंगे।

तमिलनाडु शिक्षा पर खर्च करता है, मिड डे मील ख़र्च करता है। वह अमीर राज्य है, तो कर लेगा। गरीब राज्य कैसे करें। राहुल वामपन्थी है, शिक्षा सब्सिडाइज करना चाहते हैं। 

प्रोफेसर साहब।

विद्या ददाति विनयम, विन्यादयाति पात्रत्वाम
पत्रत्वात धनमाप्नोति, धनाद धर्म, तत: सुखम

याने पेट काटकर शिक्षा पर खर्च करो। यह हमारे भारत के नीति शास्त्र कह रहे हैं, यूरोप के कार्ल मार्क्स नही। 

तमिलनाडु में मिडडे मील, अखण्ड गरीबी के दौर 1951 में पेट काटकर, कामराज ने शुरू किया था। शिक्षा बढ़ी, तो तमिल लोग प्रोफेशनल बने, आये, उद्यमी बने। वहां ऑटो हब बना, इंडस्ट्री हब बना। 

तो जाकर समृद्धि आयी। राहुल ठीक सोच रहे हैं। पर आप जैसे धूर्त चतुराई से, राहुल पर वामपन्थ का "अपराध" चिपका देते हैं। 
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आपका मानना है, कि कि रोड रस्ते बनेंगे, तो समृद्धि आएगी, तब शिक्षा पर खर्च हो। लेकिन राहुल रोड बनने नही देते। वे भट्टा परसौल गए। 

प्रोफेसर साहब। वो नियमगिरि भी गए। बयान दिए,मायावती नही, या नवीन के खिलाफ नही, अपनी ही सरकार के खिलाफ। 

सड़क बनाने के खिलाफ नही, जमीन के जबरिया- कौड़ी के मोल, अधिग्रहण के खिलाफ। तब, चौगुने मुआवजे का कानून आया। 

आप सरकार हो, माई बाप नही की जब मर्जी आये गरीब किसानों की जमीन किसी प्रोजेक्ट के नाम से कब्जिया लो, मुंह पर चवन्नी फेंक दो। 

लो, मगर विनम्रता से मांगकर, 
और दो चौगुनी कीमत।
फिर बनाओ बिंदास रोड, हाइवे, एयरपोर्ट। 

हिंदुस्तान की धरती, किसी के बाप की नही। सरकार की बपौती हरगिज नही। राहुल ने हिम्मत की अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ बोलने की, उस हिम्मत को सलाम। 

लेकिन धूर्त मण्डल ने बात महीनता से पलटकर, मायावती की महानता चिपकाने का मौका लपक लिया।
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पर असल मे लाइन बीजेपी की पीट रहे हैं। प्रोफेसर कहते है- देश मे पैसा न होगा, तो "ट्रिकल डाउन" कैसे करोगे?? 

ओह हो। 

ये ट्रिकल डाउन कैसे होता है जनाब?? दो फेवरिट उयोगपतियो की जेब भरने से?? जमीन, सब्सिडी, कर्ज माफी, टेक्स छूट देने से?? 

क्या प्रोडक्ट बनाएंगे वो, खरीदेगा कौन-
जब जनता के पास पैसा नही?? 

मनरेगा, या न्याय योजना। हां माना मुफ्त के पैसे है। लेकिन इससे जनता के पास लिक्विडिटी होगी, वह रिटेलर के पास कस्बों में आएगी, वहां से शहरों के थोक व्यापारी तक, वहां से मेट्रो के मैन्युफैक्चरिंग यूनिट में। 

यह पैसे का बॉटम अप प्रवाह है, जो समूचे बाजार औऱ अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर लाता है। इसमे पैसा देश मे, जनता के बीच बहता है। 

ट्रिकल डाउन, आप लुटेरों की बनाई फर्जी थ्योरी है। मुनाफे को ऑटोमेशन मे खर्च करते है, रोजगार नही देते। माल महंगा बेचकर धन विदेशों में छुपाते है। 

हमारा ही पैसा "विदेशी FDI" बनाकर, वापस यहां लाते हैं। याने पैसा इस अर्थव्यवस्था से बाहर निकल जाता है। यही 10 साल से हो रहा है। नहीं चाहिए। 

अपनी थ्योरी अपने पास रखिए। 
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अंत मे पर्सनल अटैक। 

कहते है- राहुल ने शेयर खरीदे है, लेकिन उद्योपतियों का विरोध करते हैं। राहुल ने स्टेट बैंक और एलआईसी के शेयर खरीदे हैं??

या अम्बानी अडानी के??
प्रोफेसर, बताना भूल गए। 

पर शेयर शब्द से उन्होंने आपको बता दिया कि राहुल ढोंगी हैं। वे वेल्थ क्रिएशन को डिस्टर्ब करते हैं। 

नहीं!!! 

वे क्रोनी कैपिटलिज्म को डिस्टर्ब करते हैं प्रोफेसर साहिब। उन्ही को, जिनसे आपकी बकैती की दुकान, 

आपका घर चलता है। 
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हिंदनबर्ग का जिक्र किया। वह शार्ट सेलर हो, या ब्लेकमेलर, उसमे आंकड़े खुद, अडानी इंडस्ट्रीज के द्वारा दी गयी एनुअल रिपोर्ट्स से उठाये गए थे। 

अडानी उल्लेखित गड़बड़ियों को न असत्य साबित न कर सके, न कोई एक्सप्लेनेशन दिया। कायदे से अमेरिका होता, तो वे आपराधिक प्रकरण में अभियोजित होते।
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अंत मे नेहरू। 

इंदिरा को नेहरू न सांसद बनाया, न मंत्री। वह फर्स्ट लेडी की भूमिका निभाती थी, उसके कारण दूसरे हैं। मण्डल झूठ बोल रहे हैं। 
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राहुल की ट्रेनिंग सड़को पर हो चुकी है। और उन्हें सड़को पर ही रहना चाहिए। 

बहुत मनमोहन और रघुराम मिलेंगे। 
दूसरा राहुल नही मिलेगा। 

@Profdilipmandal जान लें।



प्रिय मनीष, आपका आलेख पढ़ा. फैक्ट की कुछ अशुद्धियां हैं. आपका सार्वजनिक अपमान नहीं करना चाहता. इसलिए पूरी लिस्ट लिख नहीं लगा रहा हूं. सिर्फ एक बात बताता हूं. राहुल गांधी ने सरकारी कंपनियों नहीं, पूंजीपतियों की कंपनी में इन्वेस्टमेंट किया है. और इसमें कुछ भी गलत नहीं है. (देखें राहुल गांधी का चुनावी एफिडेविट) 

एक बात आपने राहुल के बारे में सही लिखी है. मैं आपको जस का तस कोट कर रहा हूं.

"उन्हें सड़को पर ही रहना चाहिए। 

बहुत मनमोहन और रघुराम मिलेंगे। 
दूसरा राहुल नही मिलेगा।"

आपकी यही बात राहुल की सबसे बड़ी समस्या है. वे जिम्मेदारी से भागते हैं. सरकार चलाते हैं, पर पद नहीं लेते. ऐसे लोग देश का तो छोडिए, पार्टी का भी भला नहीं कर पाएंगे. 

प्रिय मण्डल साहब 

आपका उत्तर मिला। हम कभी आपको और कभी इसके अधूरेपन को देखते है। 
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आपको मतिभ्रम है कि चार चंडाल ही देश का शेयर मार्किट और कैपिटलिज्म है। प्लीज करेक्ट योरसेल्फ, क्योकि व्यापार जगत में इन क्रोनीज के आगे जहान और भी हैं। 

राहुल, सरकारों के अवैध समर्थन के बगैर, स्वयं आगे बढ़ने वाले उद्योगों को सपोर्ट करते हैं। उनमे इन्वेस्ट भी करते है- इसे साबित करने का आभार। 
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राजनीति की सीमित व्याख्या है- मंत्री बनना, गर्वमेंट चलाना.. 

"सो कॉल्ड जिम्मेदारी लेना" 

वह गांधी ने नही ली, मार्टिन लूथर ने नही ली, विनोबा भावे, जयप्रकाश ने नही ली। लेकिन क्या वे गैर जिम्मेदार थे? कमजोर थे? 

डरपोक और भगोड़े थे??? 

मान्यवर कांशीराम कभी सीएम नही बने। क्यो, भगोड़े थे, या अयोग्य थे?? 

पप्पू थे न कांशीराम??
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राजनीति के आयाम मंत्री पद से ऊंचे हो सकते हैं, मण्डल साहब। बड़ी जिम्मेदारी है जनता को सुनने की। 

भट्टा परसौल और नियमगिरी में जाने की। ट्रक ड्राइवरों और बढ़ईयो के सुख दुख जानने और उनके लिए पॉलिसी बनवाने की। 

राहुल पार्टी का भला न कर पाए, देश और इसकी जनता का भला कर ले, हम संतुष्ट है। 
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अंततः.. 

अंग्रेजो के पीडब्ल्यूडी मंत्री रहे बाबा साहब ने अपने जीवन का सबसे बड़ा सन्देश, शिक्षा लेने का दिया था। 

रोड बनवाने का नही। 
तो क्या बाबा साहब, विकास विरोधी थे?? 

जवाब दें। 
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सार्वजनिक अपमान, बेझिझक कर सकते हैं। मै आपको अग्रिम क्षमा प्रदान करता हूँ।


Wednesday, June 12, 2024

भारतीय रेल्वे की ये दुर्दशा! क्या अब वन्दे भारत में भी ऐसा होगा?

क्या सच में अब वन्दे भारत में भी ऐसा होने लगा है?
आप देख कर चौंकिए नहीं ये वही वन्दे भारत के जिसके लिए रेल मंत्री को अपंग बना कर मोदी जी ने झंडा दिखाना शरू किया, जिसका पूरा क्रेडिट मोदी जी ने लिया।

ये अच्छी बात है कि कोई अच्छी लग्जरी ट्रेन भी भारत की पटरी पर दौड़ पाया। इसमें हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए कि भारत में सबसे पहले luxury train "दी पैलेस ओन व्हील्स" 1982 में ही राजस्थान में चली थी जो एक टूरिस्ट ट्रेन थी। 


मग़र-परंतु तो इसके साथ भी होना ही चाहिए। 
इसका फ़ायदा गरीबो को हुआ या अमीरों को?? 
जितना ज्यादा फ़ायदा अमीरों को नहीं मिला उससे ज़्यादा नुकसान गरीबो का हुआ, गरीब औऱ मिडिल क्लास लोग जैसे उसकी बराबरी करने को चाहने लगे वो अपने अस्तर को जनरल से स्लीपर, स्लीपर से ऐसी में जाने लगे तभी सरकार ने वन्दे भारत पर फोकस कर आमिर वर्ग को अपनी और खींचना चाहा, इससे हुआ क्या? गरीब लोगों को यह खुशी मिली कि ऐसा ट्रेन हमारे देश में भी चल रहा है, औऱ ये देखते ही देखते सोशल मीडिया के ज़माने में selfie point में बदल गया और आम लोगों तक सरकार ने समर्थन बटोरा। इसका भाड़ा आम लोगों के जेब से बाहर है ठीक वैसे जैसे Business Man (यानी बड़े restaurant वाले किसी समान का दाम इसप्रकार से रखते हैं जिससे कि आम लोग वहाँ ना पहुँच पाए, पहुंचे भी तो कभी एक बार अपना शौक पूरा करने) इससे धीरे-धीरे आम लोगों और अमीर वर्ग के बीच अपने आप एक रेखा तैयार हो जाता है।

Gagan Pratap ji लिखते हैं X पर
' रेलवे 🤦‍♂️ 
लखनऊ में वंदे भारत पर बिना टिकट यात्रियों का कब्जा। 
आपको बता दें कि यह इस समय भारत की सबसे अच्छी ट्रेन है। 🥺
अगर BEST ट्रेन का ये हाल है तो आप सोच भी नहीं सकते कि बाकी ट्रेनों का क्या हाल होगा😫😫'

[ इसमे कब्जा शब्द का प्रयोग किया गया है, उनको इस विषय पर सोचना चाहिए। 
उनका दुःख भी जायज है कि देश की सबसे अच्छी facility provide करने वाली ट्रेन का यदि ये हाल रहेगा तो अन्य ट्रेन का क्या ही हाल रहेगा।.] 

वन्दे भारत भी कई बार 17-17 घंटे लेट रहता है, फ़िर लोग इतना खर्च क्यूँ करते हैं वो भी इसका फ़ायदा प्राइवेट कंपनी(The Kolkata-based Titagarh Rail Systems Ltd) को मिलता है। 

मैं पूछना चाहता हूं क्या ये ट्रेन भारत सरकार अपने दम पर नहीं चला सकती थी?? 

अब मैं फ़िर वापस आता हूं अपने points पर :-
इसका गरीबो को क्या फ़ायदा मिला? 
*गरीबो का अलग class बना रहेगा जिससे दोनों के बीच असमानता दिखेगा 
*गरीबों का ट्रेन रोक कर वन्दे भारत को निकाला जाता है जिससे पता चलता है कि आम पब्लिक के समय का महत्व नहीं है? 
इसके जगह यदि ऐसा होता कि आम ट्रेन को रोका नहीं जाता और दोनों अपने तय समय में पहुंचता। 
*अच्छे ट्रेन में सुरक्षा कर्मी को रखा जाता है जबकि यह सभी ट्रेनों में रखा जाना चाहिए था? 
*क्या भारत सरकार सभी को सही से बैठ कर जाने का भी प्रबंध नहीं कर सकती है? की आम लोग अपना टिकट ले कर सभी आराम से बैठ कर जा सके। ये सभी को पता है जनरल में लोग luggage रखने के स्थान पर बैठ कर सफ़र करते हैं, और रात को तो नीचे फ़र्श पे, bathroom के बाहर सोता दिखता है। Railway विभाग इसके लिए क्या विचार करती है? 
*सभी ट्रेन में साफ़-सफ़ाई एक तरह होना चाहिए था जनरल ट्रेन में कभी फर्श गन्दा होता है तो कभी toilet, तो कभी पंखा भी नहीं चल रहा होता कभी कभी तो toilet में पानी भी नहीं रखता है। लगता है maintenance ना के बराबर होता है। क्या ये सब train ticket में include नहीं होता है? 
*क्या सभी train में पीने के लिए Railway के द्वारा authorised पानी नहीं मिलना चाहिए? जनरल को तो छोड़िए स्लीपर में भी बाहरी पानी(local water bottle) बेचा जाता है जो कि 10-15 का होना चाहिए तो वो 20 तक वसूलता है। 

कुछ लोग बोलते हैं जनरल में रुपया कम लगता है, कितना अच्छा सुविधा चाहते हो? तो इसपर मैं कहूँगा इसका रेट सरकार तय करती है तो वो हिसाब लगाकर के ही तय करते होंगे। 
[Railway को नियमित रूप से टिकट का जाँच कराना चाहिए इससे Railway को और फ़ायदा हो सकता है।] 
फ़िर मैं वापस आता हूँ आमिर क्लास पर
*जब exam का टिकट आता है तो आप क्या करते हैं? किसमें सफ़र करते हैं? 
*अचानक से तबीयत खराब हो या आपको अचानक से कहीं जाने का निर्णय लेना हो तब आप किसमें सफ़र करने आते हैं? 
*ऐसी sleeper में sheet ना मिले तब आप क्या करते हैं? 
*जब आप दिन का सफ़र कर रहे हों महज 4-5 घंटे का तब क्या आप स्लीपर लेना चाहते हैं? 
*यदि आपको अच्छी शीत, साफ-सफाई अच्छी मिले तो आप तो क्या आप जनरल में सफ़र नहीं करना चाहेंगे? 


इसमे जो भी लिखा गया है वो मेरे आँखों देखा दृश्य से उठता सवाल है? आप भी इसे रोजाना देखते हैं मग़र बोलते नहीं हैं लिखते नहीं हैं। 
बन्दे भारत की तरह इस स्तिथि की वीडियो बनाते नहीं हैं, यदि आप इसे अच्छा करना चाहें तो कर सकते हैं, इसके लिए सभी को आगे आना होगा इसपर बोलना पड़ेगा, लिखना पड़ेगा, इसपर ढेरों vídeo बनाइये और आम लोगों को इसके लिए समझाइए। 




"वंदे भारत की चमचमाती तस्वीरों को तो खूब शेयर करतें हैं @AshwiniVaishnaw जी क्या आपके आईडी में इस तस्वीर को भी थोड़ी जगह मिलेगी..? 

जंक्शन पर तिरंगा झंडा लगा देना विकास का मापक नहीं हो सकता है। देश के नागरिकों को उचित सुविधा देने में भी आप सक्षम नहीं हैं।

रेलवे में रोजगार भी ख़त्म ही कर चूकें हैं। धन्य हो आप जैसा मंत्री हमें फिर से मिला है।"


[जर्मनी की ट्रेन का ये वीडियो देखिए. वहां की जनता भेड़ बकरियों की तरह सफर कर रही है. अब सोचिए हम कितना सुख भोग रहे हैं. हमें वर्ल्ड क्लास सुविधा मिल रही है. सोचते हुए धन्यवाद जरूर कहें.]
इसमें कितने लोग आपको अमीर घर के दिखते हैं?

प्रोफेसर दिलीप मंडल औऱ प्रोफेसर लक्षण यादव क्या एक ही विचारधारा के हैं?


मत बदलना और विचारधारा बदलने में अंतर है.

दिलीप मंडल आरक्षण के समर्थन में हैं. लक्ष्मण यादव आरक्षण के समर्थन में हैं.

दिलीप मंडल जाति जनगणना के समर्थन में हैं. लक्ष्मण यादव भी जाति जनगणना के समर्थन में हैं.

जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी. प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण लागू करना. प्रमोशन में आरक्षण. महिला आरक्षण में OBC आरक्षण लागू करना. कॉरपोरेट लूट, भ्रष्टाचार और जातीय हिंसा - जातीय भेदभाव जैसे अति महत्वपूर्ण मुद्दों पर,

दिलीप मंडल और लक्ष्मण यादव दोनों का विचार समान है.

समस्या कहाँ है ?

मुझे तो कोई समस्या नजर नही आ रही है.

दिलीप मंडल को दोषी क्यों ठहराया जा रहा है ?

जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में OBC SC ST के आरक्षण का मुद्दा उठाना क्या गलत है ?

माइनॉरिटी स्टेटस कानून - OBC SC ST आरक्षण खत्म करने का रोड़ा क्यों होना चाहिए ?

दिलीप मंडल ने नरेंद्र मोदी की तारीफ में दस लाइन कही तो कौन सा आसमान फट गया.

किसी पार्टी या नेता को समर्थन देना या उसके समर्थन में बोलना विचारधारा से समझौता नही होता है.

दिलीप मंडल और लक्षण यादव दोनों अपने मूल विचारधारा पर कायम हैं.

समस्या है नही, फिर क्यों समस्या खड़ी की जा रही है.

फ़ोटो 1 - प्रोफेसर दिलीप मंडल
फ़ोटो 2 - प्रोफेसर लक्षण यादव



मैं दिलीप मंडल के पक्ष में हूं 

मगर उन्होंने समय पर जो मुद्दे उठाना था 

उसे मुद्दे को उन्होंने नहीं उठाया है 

जब चुनाव था तब उन्होंने कुछ ऐसे मुद्दे उठाएं 

जब नहीं उठाना चाहिए था

 जो मुद्दे उठाए हैं इस मुद्दे को चुनाव के बाद भी उठाया जा सकता था

 और इसका निवारण किया जा सकता था

 इसी कारण से कुछ लोग दिलीप मंडल जी का विरोध कर रहे

Tuesday, June 11, 2024

मतलब नही महंगाई से ना ही बेरोजगारी से !!

मतलब नही महंगाई से
बेपरवाह बेरोजगारी से.. 

कभी सोचा आपने, की मोदी सरकार कभी महंगाई और बेरोजगारी को एड्रेस क्यो नही करती?? 

इसके दो पहलू है। 
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पहला- पैसा!!! 

भाजपा, पैसों की लालची पार्टी है। एक दौर में बनियों का दल कहलाने वाले दल की बेसिक तासीर यही है- चुपचाप स्वीकार कर लीजिए। 

पैसा हर मर्ज की दवा है।
और मोदी ब्रांड राजनीति में इसकी जरूरत असीम हैं। 

साल में 5 शानदार चुनाव लड़ने के लिए, मीडिया खरीदने के लिए, होर्डिंग, पोस्टर, पैम्फलेट से देश को पाट देने के लिए, 

सांसद विधायक खरीदने के लिए,
रिजॉर्ट बुक करने के लिए...

बूथ मैनेजमेंट के लिए, रैलियां करने के लिए,
तगड़ा धरना प्रदर्शन करने के लिए, कार्यकर्ताओ की विशाल फौज को लगातार एंगेज्ड रखने को छोटे छोटे कार्यक्रम ऑर्गनाइज करने के लिए...

पैसा एसेंशियल है। 
यह मजदूरी करके नही आता। 
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आरएसएस से लेकर बजरंग दल तक, विवेकानंद फाउंडेशन से लेकर वनबंधु परिषद तक, भाजपा के हजारों आनुषंगिक संगठन हैं।

और जिस मजबूत संगठन के आप कसीदे पढ़ते हैं, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के उन कार्यकर्ताओं का काम, चना फांक कर नही चलता।
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70 साल सत्तावान रही कांग्रेस के पास, आपके शहर में एक किराए की झोपड़ी है। भाजपा के ऑफिस में तीन तल्ले हैं। 

सैंकड़ो कम्यूटर हैं, वर्कर है, डेटा है, कालिंग है, सॉफ्टवेयर है, मोनिटरिंग है, कंसल्टेंट हैं, सर्वे है, कभी खत्म ब होने वाला काम है। 

कांग्रेस के पास बूथ पर वर्कर नही, भाजपा की छतरी हर जगह है। एक बूथ पर एक दिन टीम बिठाने का का खर्च लाख रुपये होना, सस्ता एस्टिमेट हैं। इसमे रात को वोटरों में बंटे पैसे शामिल नही। 
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आईटी सेल है, कम्युनिकेशन प्रोपगेंडा की टीम है, कण्टेट क्रियेटर हैं।

खरीदा और कब्जाया हुआ डेटा है।इलेक्शन कमीशन से जुगाड़े गए, और दवा दुकानों, रेस्ट्रोरेंट की चेन, होटलों, बिग बाजारों में बिलिंग के समय लिखवाए गए आपके फोन नंबर्स हैं। 

आपके धार्मिक-पोर्न- पॉलीटकल ग्रुप में फार्वर्ड भेजने वाले वर्कर हैं।ये वेतनभोगी लोग हैं। 

आपकी पोस्ट पर ट्रोल करने आई फर्जी आईडी को उस कमेंट के लिए महज 2 रुपये मिले। अब सोशल मीडिया पर हर दिन किये गए कमेंट्स का खर्च जोड़िये। 
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कौन देगा इतना पैसा- कारपोरेट
क्यूँ देगा- बिजनेस पाने के लिए

मुनाफे के लिए, कम से कम इन्वेस्टमेंट में ज्यादा से ज्यादा कमाने के लिए। फ्री लैंण्ड, टैक्स छूट, सस्ता कर्ज, कर्ज की माफी पाने के लिए। 

फेयर कॉम्पटीशन के लिए नही, वह मोनोपॉली के लिए पार्टी को पैसे देगा। बैक डोर ठेके के लिए देगा। 2रु की दवा, राशन, कपड़े, कॉमेंटिक्स, सुविधा, सेवा को 200 में बेचने के लिए देगा। 
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सरकार महंगाई कन्ट्रोल करे, तो कारपोरेट का मुनाफा कम होगा। फेयर कम्पटीशन को बढ़ने दे, तो मुनाफा कम होगा। ऑटोमेशन और ठेके की जगह जॉब्स बढाने की पॉलिसी बढ़ाये- कारपोरेट का मुनाफा कम होगा। 

हर वो नीति, हस्तक्षेप, जो जनता की जेब में पैसा बचाएगी, उतना पैसा, उस कारपोरेट की जेब मे जाने से रह जायेग।

यह उसका नुकसान है। इस नुकसान के लिए वह पार्टी को फंड तो करेगा नही। और जिस तरह का "प्रभावी सांगठनिक कौशल" बीजेपी का है, वह फंड के बगैर शून्य है। 

एक बार सोचकर देखिए।

जितने पैसे में कोई दल, पूरे जिले की सब सीटें लड़ लेता है, भाजपा उतना एक सीट पर खर्च करती है। यह सिर्फ इलेक्शन के वक्त दिखा, भाजपा इसे 24X7 बेसिस पर चालू रखती है। 
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सिम्पल ऑब्जर्वेशन है। आपकी आंखों देखी है। लेकिन लोग सोचते नही। 

कायदे से, बढ़ती महंगाई और घटते रोजगार का बेरोजगार का नजला, तो चुनावो में मिलना चाहिए। पर आप वोट बेरोजगारी और महंगाई पर नही देते। 

राम, मुसलमान और पाकिस्तान पर देते हैं।काफी पैसे खर्च कर, आपको सीखा दिया गया है कि सिर्फ रामद्रोही, पाकिस्तानी, और मुसलमान ही भाजपा के खिलाफ हो सकते हैं।

काफी पैसा खर्च कर आपको रटाया गया कि कारपोरेट फंड्स पर सवाल उठाने वाले वामपन्थी हैं। पूंजी विरोधी है, रूसी चीनी नक्सली हैं। 

और फिर पाकिस्तानी, चीनी, नक्सली आप नही है, इसलिए भाजपा को वोट करते हैं। हिन्दू हैं, रामभक्त हैं, बीजेपी को वोट देंगे ही। 
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भाजपा को इसलिए न महंगाई की चिंता है, न बेरोजगारी की। उसे अपना संगठन पालना है, आपके बच्चे नही।

उसकी प्राथमिकता, महंगाई बढ़ाए रखना है। मुनाफा, फंडिंग बढ़ाये रखना है। 

और आपको पगलाए रखना है। 
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इस पोस्ट के नीचे भी ऐसे कमेंट करने वाले आएंगे, जिन्हें मिलने वाले 2 रुपये, उसी मुनाफे से मिल रहे है.. जो उनके बापो को रोटी, कपड़ा, तेल, दवा - बेजा कीमत पर बेचकर वसूला गया था। 

इन जैसो क, ऐसे वोटरों के रहते, मोदी बहुमत या अल्पमत में शपथ लेते रहेंगे। और ठसके से कहेंगे। 

मतलब नही महंगाई से
बेपरवाह हूँ बेरोजगारी से..

Thursday, June 6, 2024

झूंझनू का झुनझुना- जगदीप धनखड़

झूंझनू का झुनझुना..  

राजस्थान में झूंझनू शेखावटी का पुराना शहर है। कभी कायमखानियो की राजधानी रहा और इसी इलाके में वह खेतड़ी स्टेट भी आती है, जहां से नंदलाल नेहरू कभी दीवान हुआ करते थे।

यहाँ कभी स्वामी विवेकानंद के चरण पड़े, और रामकृष्ण मिशन को बड़ी मदद मिली। 

1951 जब पहली बार भारत के इलेक्शन होने वाले थे, एक जाट परिवार में जगदीप साहब का जन्म हुआ। 
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जगदीप वो फिल्मों वाले कॉमेडियन नही, मैं बात धनखड़ साहब की कर रहा हूँ, जो राज्यसभा के धड़ाधड़ सस्पेंशन को लेकर सुर्खियों में है। जिनका कॉमेडी बनाते कुछ माननीय, पकड़े गए हैं। 

बहरहाल झूंझनूरत्न धनखड़, पेशे से वकील रहे है, और आपको जानकर अचरज होगा कि वे संवैधानिक मामलों के वकील रहे हैं। 

झूंझनू बार काउंसिल में लम्बे समय तक वकालत करने के बाद, वे वीपी सिंह के जनता दल से जुड़े। 

1989 में चुनाव जीता, झूंझनू से सांसद बने।इसके बाद झूंझनूरत्न, अलग अलग पाजेब में घुंघरू की तरह बजते रहे हैं।  
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वीपी सरकार के गिरते ही, चंद्रशेखर सरकार बनी। चार माह की इस सरकार में, वीपी को छोड़कर आये प्रथम बार के सांसद धनखड़, सीधे संसदीय कार्य मंत्री बने।

चार माह में वो सरकार धूल चाट गयी, तो वे कांग्रेस में लटक लिए। 1991 में अजमेर से चुनाव लड़ा, और बुरी तरह हार गए। 

फिर 1993 में कांग्रेस के टिकट पर किशनगढ़ से विधायकी में हाथ आजमाया, और जीत गए। पर कांग्रेस हारी, शेखावत मुख्यमंत्री बने।

1998 में कांग्रेस तो जीती, गहलोत पहली बार सीएम बन गए। मगर पूर्व केंद्रीय मंत्री धनखड़, विधायकी में भी खेत रहे। उन्हें भाजपा के नाथूराम ने हरा दिया।
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1998 में वे झूंझनू से सांसदी लड़े, और हार गए। अब कांग्रेस में बजने का वक्त खत्म हो चुका था। 

2003 में हवा का रुख भांपा और भाजपा का झुनझुना बजाने लगे। 14 साल में यह चौथा दल था। 

पर यहाँ वे बियाबान में खो गए। अगले 17-18 साल वे पार्टी की लीगल सेल में मामूली काम करते रहे कि फिर, एक दिन उनके भाग से छींका टूटा।
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भोले भंडारी ने उन्हें उठाया, और झाड़ पोंछकर सीधे राजभवन में टपका दिया।

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में वे बजे, और क्या खूब बजे।

दरअसल, इतिहास में अब तक राज्यपाल को केवल नाममात्र का मुखिया माना जाता रहा। मगर 2019 के बाद का दौर अलग है। 

राज्यपाल का ऑफिस, पार्टी का कार्यालय और निर्वाचित सरकार के कामो को अड़ंगे लगाने का अड्डा बन गया है। राज्यपाल, विंधानसभा के पारित कानूनों को येन केन लटकाए रखने, मुख्यमंत्री से वाद विवाद करने और ब्यूरोक्रेसी को पैरलल निर्देश देने का काम करते हैं।

इन बिंदुओं पर धनखड़ साहब ने हाई स्कोर हासिल किया। पश्चिम बंगाल राजभवन और मुख्यमंत्री कार्यालय के बीच बदसूरत बहसों का गवाह बना। 

यहां तक कि रोज रोज उन्हें मेंशन करके ट्वीट करने से तंग आकर ममता बैनर्जी ने अपने ट्विटर पर उन्हें ब्लॉक कर दिया। 
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जाहिर है, इतिहास में यह उपलब्धि किसी सिटिंग राज्यपाल ने आज तक हासिल नही की थी। वे तो उपराष्ट्रपति के पद पर योग्य कैंडिडेट के लक्षण थे। सो उन्हें इस पद से नवाजा गया।

ये पद, यूँ तो सम्विधान में, स्टेपनी की तरह पीछे बैठे रहने के लिए बनाया गया है। पर उपराष्ट्रपति को व्यस्त रखने के लिए यह व्यवस्था है कि वे राज्यसभा के पदेन सभापति भी होते हैं। 
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अमूमन उपराष्ट्रपति सदन में कम बैठा करते थे। उपसभापति ही यहां का काम धाम सम्हालते। मेरी स्मृति में प्रागेतिहासिक काल से नजमा हेपतुल्लाह भारत की राज्यसभा की उपसभापति हुआ करती थी।

पर अब धनखड़ दिन भर सदन में बैठते हैं, मखौल बनवाते हैं, कभी ट्रोलिंग से दुखी होते हैं, कभी मिमिक्री से। समय बचे तो सांसद सस्पेंड भी करते हैं। 
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ये संस्थाओं और संवेधानिक पदों पर गिरावट का स्वर्णयुग है। पतन ही उत्थान का सर्वोत्तम मार्ग निर्धारित किया गया है। ऐसे में धनखड़ साहब कुछ बरसों बाद राष्ट्रपति बनाये जा सकते हैं। 

बहरहाल कभी राजीव के खिलाफ खड़े वीपी के साथ रहे, फिर उनके खिलाफ खड़े चंद्रशेखर के साथ रहे, फिर उनके खिलाफ रही कांग्रेस के साथ रहे, फिर उसके खिलाफ रही भाजपा के साथ खड़े पूर्व सांसद धनखड़... 

अब सांसदों के खिलाफ खड़े हैं।

141 नाबाद की पारी खेल रही सरकार के झुनझुने बनकर वे इतिहास में नाम कमा चुके हैं। सांसदों और जनता से सम्मान की गुहार लगाते झूंझनू के तत्कालीन सांसद की ये पुरानी तस्वीर है। 

जिसे देखकर दुष्यंत कुमार की पंक्तियां याद आती हैं - जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में, 

हम नहीं हैं आदमी, 
हम झुनझुने हैं ..

ओम बिरला के रहते, संसद के माथे पर काला दाग...!

संसद के माथे पर काला दाग .. !!!

ओम बिड़ला को जब याद किया जाएगा, तो लोगों के जेहन मे भावहीन सूरत उभरेगी। सदन के सबसे उंची गद्दी पर बैठा शख्स, जो संसदीय मर्यादाओं को तार तार होते सदन मे अनजान बनकर मुंह फेरता रहा। 

मावलंकर, आयंगर, सोमनाथ चटर्जी और रवि राय ने जिस कुर्सी की शोभा बढाई, उसे उंचा मयार दिया.. वहीं ओम बिड़ला इस सदन की गरिमा की रक्षा मे अक्षम स्पीकर के रूप मे याद किये जाऐंगे। 
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पांच साल तक, ओम बिड़ला के दौर मे संसद रबर स्टाम्प बनी रही। 

सदन बहस करने से बचने का अड्डा हुआ... 
सत्ता पक्ष कुछ भी कहे, अभय.. 

और विपक्ष को मुश्किल से दिये मोैको मे भी मूक बना देने वाले अध्यक्ष ओम बिड़ला थे। 

कही सामान्य कानून मनी बिल बनकर पास होते रहे तो कभी सांसदों को सस्पेंड़ कर विपक्षहीन कार्यवाही चलती रही। जिसकी सदारत मे सदन के भीतर मे बैठ जा मुल्ले गूंजा, और अध्यक्ष ने आंखें फेर ली।   
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सदन जितना आंखों के सामने चलता है, उससे ज्यादा परदे के पीछे। कौन से सवाल लिए जाऐंगे, कौन से रिजैक्ट होे। 

कौन सा सांसद बोलेगा, किसे मौका नही देंगे। किसके घंटे भर की सस्ती जोकरपंथी, संसद के इतिहास मे लिखी जाएगी, और किसके पांच मिनट के भाषण को कार्यवाही से मिटा दिया जाएगा। 

और संसद का टीवी किसके उपर कैमरा ताने रखेगा, और कब वक्ता के पूरे दस मिनट के भाषण मे संसद के झूमर पर टिका रहेगा?? 

सब तय करने का अधिकार ओम बिड़ला को था। 

और वे, जो सदन के अभिभावक बनाऐ गए थे, दलो के दलदल से उपर, न्यायाधीश की कुरसी से नवाजे गए थे, उस पद की गरिमा से पतनशील हो, 

मामूली पिटठू बनकर रह गए। 
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सबसे ज्यादा शर्मनाक, और खतरनाक काम था - विपक्ष को बाहर कर, खाली सदन से नई न्याय संहिता पर मुहर लगवाना। 

150 साल पुराने, ट्राइड, टेस्टेड और इवॉल्यूशन की नैचुरल प्रक्रिया से बनी भारत की संपूर्ण न्याय प्रणाली को आमूलचूल बदलने वाला बिल, मिनटों मे पास हो गया। 

बिना बहस, यह अधूरा, ड्रेकोनियन, दमनकारी, अंग्रेजों के कानून से कठोर और एन्टी डेमोक्रेसी प्रावधानो वाली भारतीय न्याय संहिता, राष्ट्रपति से दस्तखत हो चुकी है। किसी भी दिन नोटिफाई होकर लागू होगी। 

और उसके बाद गले से आवाज भी निकालना, छह माह की बिना ट्रायल जेल का सबब बनेगा। आम कानून को पीएमएलए बना दिया गया है। प्रावधानों को ऐसा महीन बुना गया है कि जब जहां मर्जी हो, एक थानेदार आपका जीवन नष्ट कर देगा। दूसरी ओर आपके न्याय की गुहार, सुनवाई अयोग्य मानकर ठुकरा देगा। 

यह न्याय संहिता, प्राकृतिक न्याय और सुनवाई के अधिकारों से चतुराई भरा महीन खेल करती है। इस कानून के लागू होने के बाद भारत जानेगा, कि असली मजबूत सरकार, असली पुलिस राज और सराकरी आतंक क्या होता है। 

और जब कोई हिंदुस्तानी इसमे फंसेेगा, तो इस पार्टी का समर्थक रहा हो या विरोधी - वह मोदी-2 और ओम बिड़ला को दिल की अनंत गहराइयों से..

सदियों तक शाप देगा। 
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सुनते है कि स्पीकर पद की मांग, तेलगूदेशम ने की है। यह शुभ संकेत है। एक हंग पार्लियामेण्ट मे विपक्ष की आवाज, संसदीय मर्यादाऐं का हनन.... 

दलो केे भीतर तोड़फोड, सांसद खरीदी और नीच तकनीकों के इस्तेमाल होने की छूट देने के लिए, किसी ओम बिड़ला जैसे भाजपाई को संसद की आसंदी नही मिलनी चाहिए। 

जीएमसी बालयोगी जैसे हरदिल अजीज, संतुलित लोकसभाध्यक्ष देने वाले तेलूदेशम और नायडू पर मोदी गैंग के भाजपाईयों से ज्यादा भरोसा किया जा सकता है। 

खुद तेलगू देशम, जेडीयू और दूसरे दलो की तोड़फोड़ की तमाम गुंजाइश खत्म हो जाएगी, अगर सदन की बागडोर एक संतुलित मष्तिष्क वाले क्षेत्रीय दल के हाथ मे हो। 
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नई संसद के सांसद, वे पक्ष के हो या विपक्ष के, याद रखे - बंदर के हाथ माचिस नही होनी चाहिए। 

और संसद की चाभी किसी बिडला के हाथ नही होनी चाहिए। आसंदी पर हमारी और उनकी भलाई इसी मे होगी। 

देश को और ओम बिड़ला नही चाहिए।    
लोकसभा के माथे पर, और काले दाग नहीं चाहिए।