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1. हमारे समाज में जाति और हरेक जाति के आंकड़े/स्थिति से जुड़े कई तरह के भ्रम विद्यमान हैं। उनके टूटने के लिए जातिवार जनगणना जरूरी है। संख्या के साथ उनकी स्थिति का पता होने से असल में वचिंत और कमजोर जातियों को बेहतर सुविधा व योजनाओं का त्वरित लाभ सही अनुपात में दिलाया जा सकता है।
2. आबादी के अनुपात में सबको समुचित अवसर मिलना ही 'समाजवादी लोकतंत्र' का मूल मकसद है। अनुसूचित जाति, भारत की जनसंख्या में 15 प्रतिशत हैं और अनुसूचित जनजाति 7.5 प्रतिशत हैं। सरकारी नौकरियों, स्कूल, कॉलेज तथा विविध चुनावों में उनको आरक्षण इसी अनुपात में मिलता है।
3. वहीं, जनसंख्या में ओबीसी और सवर्ण की हिस्सेदारी कितनी है, इसका कोई ठोस आकलन/आंकड़ा नहीं है। 1993 में आये सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक, कुल मिला कर 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता, इस वजह से 50 प्रतिशत में से अनुसूचित जाति और जनजाति के संख्यानुपतिक आरक्षण को निकाल कर बाकी का 27 प्रतिशत आरक्षण ओबीसी के खाते में डाल दिया गया। इसके अलावा ओबीसी को मात्र 27 प्रतिशत आरक्षण का देने का कोई आधार नहीं है।
4. ऐसे में कुछ सवाल बने रह जाते हैं। पहला यह कि ओबीसी की सही आबादी है कितनी? कहीं ओबीसी को संख्या के अनुपात से ज्यादा या कम आरक्षण तो नहीं मिल रहा है? यदि संख्या से ज्यादा आरक्षण मिल रहा है, तो उसे कम किये जाने की जरूरत है, वहीं यदि संख्यानुपात में कम है, तो इस गैरबराबरी को खत्म करने के लिए आरक्षण बढ़ाने की जरूरत है। चूंकि, आठ लाख की पारिवारिक आय वाली गरीबी को आधार बना कर बिना किसी गणना के सवर्णों को दिये 10 प्रतिशत आरक्षण की वजह से आरक्षण का दायरा अब 60 प्रतिशत तक पहुंच चुका है, तो सही आंकड़े आने पर इसमें कानूनी तौर पर बदलाव भी संभव है। इससे सुप्रीम कोर्ट के मनमाने फैसलों को तथ्यात्मक रूप से चुनौती दी जा सकती है।
5. एक मुद्दा यह उठता रहता है कि ओबीसी के आरक्षण का सबसे ज्यादा लाभ तीन-चार प्रमुख जातियों ने ही उठाया है। इनमें उत्तर भारत की तीन प्रमुख ओबीसी जाति यादव, कुर्मी और कुशवाहा जाति के नाम आते हैं। ऐसे में जाति जनगणना से पहले तो यह पता चल पायेगा कि क्या 1993 से लेकर अब तक सरकारी नौकरियों में ओबीसी हिस्सेदारी 27 फीसदी तक भी पूरी हो पायी है या नहीं? यदि पूरी हो भी गयी है, तो क्या सचमुच बड़े हिस्से का लाभ इन्हीं कुछ ही जातियों ने उठाया है? इन जातियों की संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व की क्या स्थिति है?
6. ओबीसी जातियों की संख्या और प्रतिनिधित्व के आंकड़े के आधार पर ओबीसी और इबीसी के आरक्षण अनुपात को घटाया/बढ़ाया जा सकता है। रोहिणी आयोग की रिपोर्ट को भी लागू किया जा सकता है।
7. समाज में अभी तक मुंहजोरों का बोलवाला रहा है, क्योंकि असल में कौन कितने पानी में है, यह पता ही नहीं है। फलाने की आबादी कितनी है, सब जाति जनगणना से पता चल जायेगा। नहीं तो अभी वही स्थिति है कि जैसे- हट्टा-कट्टा श्रम करने वाला मजदूर भी थुलथुले मालिक से खुद को कमजोर मानता है। इसी तरह कई तथाकथित कमजोर जातियां अपनी संख्या को जानती ही नहीं है और यह मान कर कि हम तो कम होंगे, न चुनाव लड़ते हैं, न ही दलों के पास टिकट की दावेदारी करते हैं।
8. रही जातिगत विभेद के बढ़ने की बात तो वह पहले से विद्यमान है और उसे हिंदुत्व वे ऑफ लाइफ के रहते खत्म नहीं किया जा सकता। क्योंकि, इस धर्म में पुजारी बनने की योग्यता/प्रक्रिया शिक्षा न होकर जाति है, इसीलिए महान बनने की कोशिश में अपना बहुमूल्य समय नष्ट न करें।
9. बहुसंख्य दलित/ओबीसी जातियों के लोग भेदभाव से बचने के लिए बच्चों के नाम में सवर्णों जैसे सरनेम जोड़ देते हैं। उन्हें आरक्षण का लाभ उठाने से ज्यादा जातिगत भेदभाव वाली व्यवस्था के शिकार हो जाने का भय होता है। अधिकांशतः जिनके सरनेम को देख जाति का कंफ्यूजन हो, वे पिछड़े-दलित वर्ग के होंगे। यही भय उनके तरक्की का काल है, क्योंकि कोई भी जाति से छोटा-बड़ा नहीं होता। छोटे-बड़े लोगों के सोच होते हैं। जरूरत है कि सोच को बड़ा करते हुए अपनी पहचान की गणना करवाइये।
10. जैसे मेरी जाति कुशवाहा है, यह कहने के लिए मुझे लम्बा समय लग गया, लेकिन यह कहते हुए न तो मुझे कोई दुख है और न ही कोई गर्व। समाज की जो बुनावट है, उसमें से एक जाति में संयोग से मेरा जन्म हुआ। सभी पिछड़ी-दलित जाति के लोग आराम से सवर्णों के सरनेम की तरह अपनी जाति का सरनेम बिना जातिवादी कहलाये लगा सकें, इसके लिए जाति आधारित जनगणना जरूरी है।
और... जिन्हें लगता है कि वे जात-पात से ऊपर उठ चुके हैं, वे जाति वाले कॉलम में नोटा दबा दें।
बाकी त जे है से हइये है!
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