मेरा जीवन एक सामान्य व्यक्ति की तरह बीत रहा था। मग़र मैं कभी हॉस्पिटल में भर्ती नहीं हुआ।
मेरे पिताजी मेरे हर छोटे-बड़े बिमारी में घर पर ही डॉक्टर को बुला लिया करते थे। जहां तक मैं ध्यान कर पा रहा हूं
कि हमें बिमारी में भी कोई बहुत ख़तरनाक रूप लेना वाला बिमारी कभी नहीं हुआ। कुछ बिमारी रहा
जिसमें से एक था विकलांगता और लू। मैं बचपन से ही पैर से विकलांग रहा था। मेरे पिता जी, माता जी, मामा जी एवं डॉ के
कठिन प्रयास से मेरे पैर को सामान्य पैर में बदला जा सका। आज मैं इस पैर के मदद से सामान्य जीवन जीता हूं, चलने फिरने से लेकर दौडता भी हूं।
अब तक मैं दौड़ में कई दफा पुरस्कृत किया जा चुका हूं, यहां तक की ग्रेजुएशन की डिग्री पुरा करते वक्त मैं इंटर कालेज 10 km मैराथन मैं भी गोल्ड रहा था।
एक दफ़ा हमें लु लग गया था जिसमें हम 10-15 दिन तक बीमार रहे थे। रोजाना सुबह-शाम सूई, औऱ पानी चढ़ाना, ढेरों दबाईयाँ सामान्य था।
मग़र हमारा ईलाज तब भी घर पर ही हुआ था. मैं हॉस्पिटल कभी भी भर्ती होने के लिए नहीं गया था ना ही किसी के भर्ती होने पर हमें वहां रहना पड़ा हो। इस वज़ह से 'अस्पतालों के चक्कर से' मैं पुरी तरह अवगत नहीं था. थोड़ा बहुत तो था जो मैं अख़बार या न्यूज चैनल पर देखा करता था.
एक वक़्त आता है 14 जनवरी 2022, जब हमें कॉल आता है, हमारे मामा जी का की मैं अस्पताल में भर्ती हूं मेरा तबीयत सही नहीं है। तुम्हें आना पड़ेगा.
मैं भी झट से निर्णय लिया और अस्पताल जाने को सोचा।
मैं अस्पताल पहुंच गया और मामा जी का देख-रेख करने लगा।
मैंने जो भी वहां देखा और अनुभव किया मैं वही लिखने जा रहा हूं।
मामा जी का स्वास्थ्य सुधरने के वजाय बिगड़ता चला गया।
मामा जी क़रीब 18-20 साल पुराने चीनी रोगी रहे थे। हॉस्पिटल के अनुसार सारा जाँच करा लिया गया था। 2 दिन बिताने के बाद शनिवार तक dialysis
होना चाहिए था मगर नo. पीछे आने के वज़ह से नहीं हो पाया।
आप उम्मीद करते होंगे ये तो किसी भी वक़्त हो जाना चाहिए। 24*7 सेवा सुचारु रुप से मिलना चाहिए. बात यहां तक कि नहीं है, dialysis उसके
दूसरे दिन भी नहीं हो सकता था चाहे आपका patients death ही क्यूं ना कर जाए. बात है ऐसा क्यों हुआ?
"क्यूं की अगला दिन 'इतवार' था."
सोचने की बात है, 'क्या इतवार को स्वास्थ्य व्यवस्था में ढिलाई देना चाहिए?'
'क्य़ा इतवार को बीमारी भी अपना छुट्टी ले लेता है?'
'क्या कुछ और तकनीशियन डॉक्टर रख कर इसे 24*7 नहीं किया जा सकता?'
'क्या इतवार को डॉक्टरों का अस्पताल में हाजरी संख्या सामान्य दिनों के तरह नहीं होना चाहिए? या ज्यादातर डॉक्टरों को छुट्टी दे कर
सिर्फ इमर्जेंसी रोगी को देखना सही रहेगा?'
सवाल तो उठता है सिर्फ़ इसलिए नहीं कि मेरे मामा जी तकलीफ़ में थे। इसलिए कि ऐसे व्यवस्था के चलते कितने लोगों का मृत्यु हो जाता होगा।
जिसका गिनती भी आपको सही से नहीं मिलेगा।
जैसे मैं आपको आंखों देखा उद्धरण देता हूं।
मैंने अपने आँखों से एक प्रेगनेंट महिला को दर्द से कराहते हुए मरते देखा.
वज़ह, वार्ड में नर्स के द्वारा मरीज़ के अभिभावक को बार-बार emergency वॉर्ड में जाने को कहने पर उसका पति स्ट्रेचर के लिए अस्पताल में ढूँढता
औऱ स्ट्रेचर वाले को आवाज लगाता है, वहाँ के स्टाफ़ से बोलता है।
महज़ 20mins बाद वो स्ट्रेचर वाला सुनता है औऱ आता है तब तक वो महिला अंतिम साँसे गिन रहीं होती है.
मग़र वो स्ट्रेचर वाला कहता है इसको इमर्जेंसी वॉर्ड में ले जाकर भी क्य़ा कीजिएगा, वहाँ भी आपको अभी डॉक्टर नहीं मिलेंगे. अभी उनका समय नहीं हुआ है. (मतलब वो 9:00-9:30am तक आते हैं).
वो स्ट्रेचर वाले तभी इस लिऐ नहीं सुनना चाह रहे थे क्योंकि उसका ड्यूटी महज कुछ ही मिनटों में समाप्त होने वाला था। उसे अपनी छुट्टी पड़ी थी।
अंततः आत्मा ने उस महिला के शरीर को छोड़ दिया.
उसका परिवार देखता रह गया. अस्पताल में भर्ती होने के वाबजूद अस्पताल के स्टाफ़ औऱ डॉक्टर के लापरवाही के चलते जान चला गया.
"कहने का मतलब यह है कि इस प्रकार से कितनों लोगों का जान जाता होगा."
कई दफा मिडिया संस्थाओं को ऐसी ख़बर मील जाती है तो रिपोर्टिंग हो जाती है, कई दफा इसे दवा भी दिया जाता है।
इसलिए आप सभी से विनती है ऐसी रिपोर्टिंग देख कर आप ये ना सोचे की देश में सिर्फ़ एक ही ऐसा घटना घटित हुआ होगा।
नीत दिन ऐसे केस ढेरों होते होंगे जो मीडिया में कई कारणों से सामने आ ही नहीं पाता होगा. जैसे यह उद्धरण,
जिसका मैंने ऊपर ज़िक्र किया है। इसलिए भी स्वास्थ्य व्यवस्था पर हुए रिपोर्टिंग का समर्थन करें।
ये सारी घटनाओं को मेरे मामा जी एवं और भी दूसरे मरीजों ने देखा। कितने लोग उस वार्ड में रोने लगे तो किसी ने गुस्सा प्रकट किया।
मगर होना क्या था। वो जिन्दा तो हो नहीं सकता था।
अंत में मृत शरीर को ले जाने के लिए दुसरा स्ट्रेचर वाला आता है, उसने भी वहाँ उपस्थित रहे लोगों का गुस्सा देख पहले वाले व्यक्ति पर गुस्सा दिखाया। (जो व्यक्ति पहले स्ट्रेचर ले कर आया था।
मेरे मामा उस घटना को देख जीने लगे और कहने लगे 'देखो ऐसे ही होता है दम फुलने पर फिर दम टूट जाता है, एक दिन सबको जाना है' जैसी बातें।
हमारे मामा जी का तबीयत और बिगड़ता जा रहा था, उल्टी रूकने का नाम ही नहीं ले रहा था साथ में दम फूलना और पेट में दर्द।
समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ। बार-बार डॉ और नर्ष के कमरे के पास चक्कर लगा रहा था और परेशानि बताने का कोशिश करना।
हर बार डॉक्टर लिस्ट में एक नया दवा या इंजेक्शन जोड़ देते थे। नर्ष भी सिर्फ़ सुई देने के समय पर वार्ड में उपस्थित होती थी बांकी वक्त अपने कमरे में।
इंजेक्शन देने का रफ्तार इतना ही समझा जाए जैसे ट्रेन छुटने वाला हो।
पहला दिन जब भर्ती हुए थे अपने से चल पा रहे थे ऐसे जैसे उन्हें कुछ परेशानी ही नहीं हो। अंतिम दिन तक उन्हें पिसाब भी वहीँ पर कराना पड़ा था।
हम सभी( जो भी मामा जी के पास थे) ने मामा जी का serious हालत देख सरकारी अस्पताल से निजि अस्पताल में ले जाने के लिए सोचा। 🤔
बात ये नहीं है, बात ये है की पहले इन्हें निजि अस्पताल से ही सरकारी अस्पताल ज़े.एल.एन.एम.सी.एच. भागलपुर में भेजा गया था।
फ़िर सरकारी से मजबूरन निजि अस्पताल।
कहानी आगे चलता गया फ़िर dialysis भी हुआ, fistula भी बना।
इस दौरान कई डॉ बदले, शहर बदले, हालात बदले। अगर ये सरकारी अस्पताल में हो गया होता तो "प्राइवेट लुट" से तो जरूर बचते।
बीच में आ गया "डॉक्टरों का लापरवाही और इतवार।"
Note:- इस पूरे आर्टिकल का उद्देश्य है सरकारी अस्पतालों को व्यवस्थित करना, उसकी जरूरत को एवं लापरवाह व्यवस्था को दर्शाना।
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